पूर्व सीएम हरीश रावत की तरह विधानसभा चुनाव के नतीजों ने पूर्व काबीना मंत्री हरक सिंह रावत को उनके राजनीतिक करियर के सबसे जटिल मोड़ पर ला खड़ा किया है। हरक के राजनीति करियर में यह पहला मौका है जब हरक खुद तो सत्ता की मुख्यधारा से कट ही गए हैं, उनकी उत्तराधिकारी मानी जा रहीं पुत्रवधु अनुकृति गुंसाई भी लैंसडौन सीट से बड़े मार्जिन से चुनाव हार गईं।
अपने समर्थकों के बीच शेर ए गढ़वाल के नाम से मशहूर हरक के बारे में माना जाता रहा है कि जिस सीट पर हरक जाते हैं वहां अपने आप ही फर्क पड़ जाता है। लैंसडौन सीट के नतीजे ने हरक से जुड़ी इन दोनों उपमाओं को भी बेमानी कर दिया। कांग्रेस में शामिल होने के बाद हरक ने मीडिया से बातचीत में दावा किया था कि प्रदेश की 35 सीटों पर उनके एक हजार से 25 हजार तक समर्थक हैं।
लेकिन लैंसडौन में तो हरक का जादू नहीं ही चला, आसपास की हरक के प्रभाव की माने जाने वाली चौबट़्टाखाल, पौड़ी,श्रीनगर, कोटद्वार, रुद्रप्रयाग में भी कोई असर नहीं दिखा। वर्ष 1990 से राजनीति में सक्रिय हरक किसी ने किसी रूप में हमेशा सत्ता का हिस्सा रहे हैं। वहीं बाजपुर सीट पर कम अंतर से जीतने वाले यशपाल आर्य के लिए भी डगर आसान नहीं है। उनके बेटे संजीव आर्य सुरक्षित सीट पर चुनाव हार गए।
भाजपा की वापसी से बढ़ा संकट
हरक के सामने संकट यह है कि जिस भाजपा को ऐन चुनाव के वक्त छोड़ आए थे, वो फिर से पूर्ण बहुमत के साथ के साथ दोबारा सत्तासीन होने जा रही है। खुद तो हरक चुनाव लड़े नहीं और उनकी बहू की हार से उनके राजनीतिक असर पर सवाल और खड़े कर दिए हैं। भाजपा को छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए हरक ने अनुकृति को राजनीति में स्थापित करने के लिए खुद की महत्वाकांक्षाओं को कुर्बान कर दिया था।
चैंपियन की चमक भी पड़ी फीकी
वर्ष 2002 से वर्ष 2017 तक लगातार चुनाव जीतते आ रहे प्रणव सिंह चैंपियन की राजनीतिक चमक भी इस चुनाव में धूमिल कर दी। भाजपा ने इस बार चैंपियन की जगह उनकी पत्नी रानी देवयानी को खानपुर सीट से टिकट दिया था। चार बार के विधायक चैंपियन को पूरी उम्मीद थी कि वो अपनी पत्नी को आसानी से चुनाव जिता ले जाएंगे। लेकिन निर्दलीय प्रत्याशी उमेश कुमार ने चैंपियन को आसानी से धूल चटा दी।