Wednesday, March 22, 2023
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उत्तराखंड की राजनीति में महिलाओं के पास कितनी ताकत है? कमी कहाँ है? रिपोर्ट पढ़ें

उत्तराखंड के तराई क्षेत्रों में देखा जाए तो महिलाओं का जीवन पहाड़ियों की तुलना में थोड़ा आसान है और यहां आर्थिक रूप से संपन्न घरों की महिलाएं राजनीति में आने लगी हैं। तराई में भी महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी कमोबेश केवल आरक्षित सीटों पर ही देखने को मिलती है। यानी यह कहा जा सकता है कि राजनीतिक रूप से पहाड़ की महिलाओं और तराई की महिलाओं में ज्यादा अंतर नहीं है.

विधानसभा चुनाव को किसी भी राज्य का सबसे बड़ा चुनाव माना जाता है। वर्तमान में उत्तराखंड में 70 विधानसभाओं में केवल 04 महिला विधायक हैं, यानी केवल 6 प्रतिशत। 2017 के विधानसभा चुनाव को देखें तो यह चुनाव मुख्य रूप से दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों बीजेपी बनाम कांग्रेस के बीच लड़ा गया था. बीजेपी ने जहां 05 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया, वहीं कांग्रेस ने 08 महिलाओं को टिकट दिया. इस विषय पर उन्होंने उत्तराखंड के दो राजनीतिक दलों की वरिष्ठ महिलाओं से उनकी राय जानी, जिन्होंने जीवन के कई उतार-चढ़ाव के बाद अपना राजनीतिक स्थान हासिल किया।

आशा नौटियाल (पूर्व विधायक भाजपा, केदारनाथ विधानसभा) कहती हैं… “पंचायत स्तर पर महिलाओं की राजनीतिक उपस्थिति होती है, लेकिन विधानसभा/लोकसभा जैसे बड़े चुनावों में पुरुषों का वर्चस्व होता है। महिलाएं जब राज्य गठन के लिए संघर्ष करती हैं। यदि वे कर सकती हैं। एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उन्हें भी राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए।

महिलाओं पर भरोसा किया जाना चाहिए और उनकी राजनीतिक भूमिका तय की जानी चाहिए।”
सरिता पुरोहित (केंद्रीय उपाध्यक्ष, उत्तराखंड क्रांति दल और राज्य आंदोलनकारी) कहती हैं… “महिलाओं को अधिक से अधिक प्रत्यक्ष (राजनीतिक) और अप्रत्यक्ष रूप से (मतदाताओं के रूप में) आना चाहिए। महिलाओं को छात्र जीवन से ही राजनीतिक समझ होनी चाहिए। राजनीति में जाने वाली महिलाओं को परिवार का समर्थन करना चाहिए। राजनीतिक दलों और जनता को महिलाओं पर विश्वास करना चाहिए।”

अधिकांश महिलाओं का मानना ​​है कि रूढ़िवादी सामाजिक संरचना महिलाओं को राजनीति में असफल बनाती है। सांस्कृतिक प्रतिबंधों में पर्दा प्रथा, किसी अन्य व्यक्ति से बात न करना आदि प्रमुख कारण हैं। घरेलू जिम्मेदारियों के बावजूद महिलाओं को राजनीति में पुरुषों की तुलना में कम पारिवारिक समर्थन मिलता है। राजनीतिक दल भी कुछ हताशा से ग्रस्त नजर आ रहे हैं क्योंकि यहां भी पुरुषों को महिलाओं की तुलना में अधिक चुनावी उम्मीदवार बनाया जाता है। मतदाताओं की संख्या को देखा जाए तो मतदाता भी महिला उम्मीदवारों की तुलना में पुरुष उम्मीदवारों के पक्ष में अधिक मतदान करते हैं।

यह सब इसलिए है क्योंकि महिलाओं को घर पर राजनीतिक निर्णय लेने में बहुत कम या बिल्कुल भी स्वायत्तता नहीं है। जिसके कारण उन्हें चुनाव से पहले अपात्र माना जाता है और वे वोट हासिल नहीं कर पाते हैं। उत्तराखंड में पिछले कुछ वर्षों में मतदाताओं के रूप में महिलाओं की भूमिका बढ़ी है और देखा गया है कि इसके अलावा महिलाएं अपनी राजनीतिक पसंद को लेकर स्वतंत्र भी हो रही हैं। लेकिन अब यह चलन शिक्षित महिलाओं में ही ज्यादा देखने को मिला।

कम पढ़े लिखे पुरुषों के सापेक्ष अधिक पढ़ी लिखी महिलाओं की राजनीति में दखलंदाज़ी भी वर्तमान राजनीति में लैंगिक संघर्ष का कारण बनती जा रही है। महिला अगर राजनीति में आधी दुनिया का हक़ लेकर आती है और पुरुषों के समकक्ष बराबरी के साथ खड़ी होती है तो राजनीति का स्वरूप बदलेगा। क्योंकि महिला के अंदर जो सामाजिकता, व्यवहारिकता,सत्य-असत्य के आंकलन का एक नैसर्गिक ज्ञान होता है उससे राजनीति में एक शुचिता पैदा होगी। “महिलाएं राजनीति में ख़त्म हो रही संवेदना को जीवित करने की एक उम्मीद हैं।”

Ankur Singhhttps://hilllive.in
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