Wednesday, March 22, 2023
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इगास उत्सव: आज भी भैलो की परंपरा को जीवंत रखे हुए हैं रुद्रप्रयाग और चमोली जिले के गांव 

भैला ओ भैला, चल खेली औला, नाचा कूदा मारा फाल, फिर बौड़ी एगी बग्वाल … लोक गायक गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी के इस गीत में गांवों में दीवाली और इगास उत्सव की महत्ता को बयां किया गया है। दीपावली के बाद इगास का त्योहार गांव-गांव श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है।

घरों में विशेष साज-सज्जा के साथ तरह-तरह के पकवान तैयार किए जाते हैं। पारंपरिक भैलो नृत्य इस पर्व का खास आकर्षण होता है, जो आपसी सौहार्द और सहभागिता का संदेश देता है। रुद्रप्रयाग और चमोली जिले के कई गांव भैलो नृत्य की परंपरा को जीवंत रखे हुए हैं।

दीपावली के ग्यारह दिन बाद इगास का पर्व
कार्तिक मास में दीपावली के ग्यारह दिन बाद इगास का पर्व पर्वतीय अंचल में धूमधाम से मनाया जाता है। लोग अपने घरों को दीये की रोशनी से सरोबार करते हैं। घरों में तरह-तरह के व्यंजन बनाए जाते हैं और देवी-देवताओं की विशेष पूजा की जाती है।

 

देर शाम गांवों में पंचायती चौक या किसी अन्य सार्वजनिक स्थल पर महिला और युवक मंगल दल सहित अन्य ग्रामीण ढोल-दमाऊं की थाप पर भैलो नृत्य करते हैं। अगस्त्यमुनि ब्लॉक के पट्टी बच्छणस्यूं के बणगांव, बणसो, संकरोड़ी, झुंडोली समेत रानीगढ़ पट्टी के कोट तल्ला, मल्ला, बिचला, जसोली, कोदिमा, तल्ला नागपुर के स्यूंड, सन-क्यार्क समेत जिले के कई अन्य गांवों में पुरुष और महिलाएं अलग-अलग समूह बनाकर भैलो खेलते हैं। इस दौरान चांछड़ी, झूमेलो व चौफला नृत्य के साथ पारंपरिक गीत भी गाए जाते हैं।

अंधेरे से प्रकाश का प्रतीक
चमोली जिले में बदरीनाथ धाम से संबंध रखने वाले डिम्मर गांव में भैलो का शुभारंभ पूजा-अर्चना के साथ पंचायत चौरी से होता है। आदिबदरी क्षेत्र सहित चांदपुर गढ़ी से लगे गांवों के साथ ही सिलपाटा और जुलगढ़ आदि गांवों में भी सदियों से भैलो खेलने की परंपरा निभाई जा रही है। लंबे समय से लोक संस्कृति के संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहे दीपक बेंजवाल बताते हैं कि भैलो की परंपरा अंधेरे से प्रकाश का प्रतीक है। इन परंपराओं के संरक्षण के साथ इन्हें वृहद रूप देना होगा।
क्या होता है भैलो
तिल, भंगजीरे, हिसर और चीड़ की सूखी लकड़ी के छोटे-छोटे गठ्ठर बनाकर इन्हें विशेष रस्सी से बांधकर भैलो तैयार किया जाता है। बग्वाल के दिन पूजा अर्चना कर भैलो का तिलक किया जाता है। फिर ग्रामीण एक स्थान पर एकत्रित होकर भैलो खेलते हैं। भैलो पर आग लगाकर इसे चारों ओर घुमाया जाता है। कई ग्रामीण भैलो से करतब भी दिखाते हैं।

पारंपरिक भैलो गीत
पारंपरिक लोकनृत्य चांछड़ी और झुमेलों के साथ भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भगलू आदि लोकगीतों के साथ मांगल व देवी-देवताओं की जागर गाई जाती हैं।

क्यों मनाई जाती है इगास
पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान श्रीराम 14 वर्ष के वनवास के बाद जब अयोध्या लौटे थे, तो लोगों ने अपने घरों में दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। लेकिन कहा जाता है कि तब गढ़वाल मंडल पर्वतीय क्षेत्रों में यह सूचना दीपावली के 11 दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली, जिससे वहां दीपावली के 11 दिन बाद बूढ़ी दिवाली (इगास) धूमधाम से मनाई जाती है।

इसी पर्व को लेकर एक अन्य मान्यता यह भी है कि वीर माधो सिंह भंडारी की सेना दुश्मनों को परास्त कर दीपावली के 11 दिन बाद जब वापस लौटी तो स्थानीय लोगों ने दीये जलाकर सैनिकों का स्वागत किया।

देवभूमि उत्तराखंड के गढ़-कुमाऊं के गांवों में भैलो नृत्य के बिना दीपावली के त्योहार की कल्पना नहीं की जा सकती है। यह लोक संस्कृति का अभिन्न अंग है, जिसके संरक्षण व प्रचार-प्रसार के लिए मिलकर कार्य करने की जरूरत है।
– प्रो. डा. डीआर पुरोहित, पूर्व निदेशक एचएनबी केंद्रीय विवि श्रीनगर गढ़वाल

Ankur Singhhttps://hilllive.in
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